"नाग कौन थे ? उनका सांस्कृतिक विकास कितना ऊंचा था ?"
प्राचीन इतिहास के विद्यार्थी जब अतीत की मीमांसा करते हैं तो उन्हें चार नाम प्रायः मिलते हैं , आर्य , द्रविड़ , दास और नाग । इतिहास के विद्यार्थियों की सबसे बड़ी गलती दासों को नागों से पृथक करना है । दास और नाग एक ही हैं । दास , नागों का केवल दूसरा नाम मात्र है । यह समझना कठिन नहीं है कि वैदिक वाङ्मय में नागों का ही नाम दास क्यों पड़ा । दास भारतीय ईरानी शब्द दाहक का संस्कृत तत्सम रूप है । नागों के राजा का नाम दाहक था इसलिए आर्यों ने नागों के राजा के नाम पर सभी नागों को सामान्य रूप से दास कहना आरंभ किया । नाग कौन थे ? निस्संदेह वे अनार्य थे ।
वैदिक वाङ्मय को ध्यान से देखने से उसमें एक विसंगति और द्वेत की भावना दो तरह की संस्कृतियों और विचारधाराओं के बीच उहापोह की भावना साफ तौर पर दिखाई देती है । ऋग्वेद में हमारा परिचय आर्य देवता इन्द्र के शत्रु अहि वृत्र ( सांप देवता ) से होता है । पीछे चलकर यह सांप देवता नाग नाम से प्रसिद्ध हुआ , किंतु आरंभिक वैदिक वाङमय में नाग और नाम दृष्टिगोचर नहीं होता और जब यह शतपथ ब्राह्मण ( 11 - 2 , 7 , 12 ) में प्रथम बार आता है , तो यह स्पष्ट नहीं होता कि नाग का मतलब एक बड़ा सांप है या बड़ा हाथी । लेकिन इससे अहिवृत्र का स्वरूप नहीं छिपता क्योंकि ऋगवेद में उसका स्वरूप सदैव पानी में अथवा उसके चारों ओर छिपे तथा आकाश और पृथ्वी के जल पर समान रूप से अधिकार किए हुए सांप का है ।
अहिवृत्र संबंधी वेद मंत्रों से यह भी स्पष्ट है कि आर्य उसकी पूजा नहीं करते थे । वे उसे आसुरी प्रकृति का एक शक्तिशाली देवता मानते थे , जिसे परास्त करना ही इष्ट था ।
ऋग्वेद में नागों का नाम आने से यह स्पष्ट है कि ' नाग एक बहुत ही प्राचीन पुरूष थे । यह भी स्मरणीय है कि नाग न तो आदिवासी ही थे और न असभ्य ही । इतिहास नागों और राजकीय परिवारों के बीच निकट वैवाहिक संबंधों का भी साक्षी है । कदम्ब - नरेश कृष्णवमो ' के देवगिरि शिला - लेख के अनुसार कदम्बकुल का नागों से संबंध था । नवीं शताब्दी के राजकोट के दान पत्र में अश्वत्थामा एक के नाग कन्या के साथ विवाह का उल्लेख है । उन्हीं की संतान स्कंद शिष्य ने पल्लव वंश की स्थापना की । नवीं शताब्दी के ही एक दूसरे पल्लव शिला - लेख के अनुसार वीर - कुर्च पल्लव वंश का राजा था । इसी शिला - लेख में उल्लेख है कि उसने एक नाग कन्या से विवाह किया था और उससे उसे राज्य चिन्ह मिला था । वाकाटक नरेश प्रवरसेन के पुत्र गौतमी - पुत्र का भारवि नरेश भवनाग की पुत्री के साथ विवाह करना एक ऐतिहासिक घटना है । इसी प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय का नाग - कुल ' की कुबेर नाग नामक कन्या से विवाह हुआ । एक तमिल कवि का कहना है कि कोक्किल्ली नाम के एक प्राचीन चोल नरेश ने एक नाग कन्या से विवाह किया । राजेन्द्र चोल को भी अपनी तेजस्विता के कारण नाग कन्या का पाणिग्रहण करने का श्रेय दिया जाता है । नावसाहशांक चरित में परमेश्वर नरेश सिंधुराज ( जिसने दसवीं शताब्दी के प्रथम भाग में राज्य किया होगा ) . और शशिप्रभा नामक नाग कन्या के विवाह का इतने विस्तार और ऐसी यथार्थता से वर्णन है कि हमें लगभग यह विश्वास हो जाता है कि इस कथन में कुछ ऐतिहासिकता अवश्य होगी । ( 973 - 1830 वि . स . ) के हर्ष के शिलालेख में हमें आभास मिलता है - गुवाक प्रथम नागों और कमारों की सभाओं में वीर रूप में प्रसिद्ध था । यह नरेश विग्रहराज चाहमान से ऊपर की पीढ़ी में छठा था । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह नवीं शताब्दी के मध्य में राज्य करता रहा होगा । उड़ीसा के भौमन वंश के शान्तिकर के पुत्र के एक शिलालेख में पता चलता है कि उसने नाग परिवार की त्रिभुवन महादेवी ' से विवाह किया था । शान्तिकर का समय 921 ई . के आस - पास समझना चाहिए ।
नाग सांस्कृतिक विकास की ऊंची अवस्था को तो प्राप्त थे ही इतिहास से यह - भी प्रकट होता है कि वह देश के एक बड़े भू - भाग पर राज्य भी करते थे । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि महाराष्ट्र नागों का क्षेत्र है । यहां के लोग और यहां के राजा नाग थे ।
एक से अधिक प्रमाणों से यह पता चलता है , ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में आंध्र देश और उसका पड़ोस नागों के अधीन था । सातवाहन और उनके छुतुकुल शातकर्मी उत्तराधिकारियों का रक्त नाग रक्त ही था । जैसा . डॉ . एच . सी . रायचौधरी ने निर्देश किया है सातवाहन वंश के पौराणिक प्रतिनिधि सालीहरण को पूनिया शत्पुकलिला ने ब्राह्मण और नाग के मेल से उत्पन्न स्वीकार किया है । उनकी वंशावलियों में जो नमूने के नाग नाम मिलते है । उनसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है । अनेक घटनाओं से यह भी सिद्ध होता है कि सातवाहन राज्य के अंतिम दिनों में नाग बहुत शक्तिशाली हो गये थे । सातवाहन वंश की मुख्य शाखा के अंतिम नरेश पुलुमवी के शासन काल में स्कन्दनाग नामक राजा राज्य करता था । दूसरे एक छुतु नरेश की कन्या नाग मुलनिका के बारे में उल्लेख है कि उसने शिकन्द नाग श्रीनाम के अपने पुत्र के साथ एक नाग की भेंट दी । इस वंश के सभी ज्ञात नरेशों क नाम यहीं हैं । इससे नागों से निकट संबंध सिद्ध होता है । तीसरे , सोरिनगोई की राजधानी उरगपुर के नाम से यब बात झलकती है कि यहां किसी नाग - राजा का अलग से राज्य नहीं था , किंतु उस चिरकाल स्थित प्रदेश में वह नागों का एक उपनिवेश था ।
सिंहल और स्याम की बौद्ध अनुश्रुति से भी हमें यह ज्ञात होता है कि करांची के पास मजेरिक नाम का एक नाग प्रदेश था ।
तीसरी और चौथी शताब्दी के प्रारंभ में उत्तरी भारत में भी अनेक नाग नरेशों का शासन रहा है । यह बात पुराणों , प्राचीन सिक्कों तथा लेखों से सिद्ध होती है । विदिशा चम्पावती , पदमावती और मथुरा का विशेष उल्लेख मिलता है कि उनकी असंदिग्ध है । यहां यह संभव नहीं है कि हम द्वितीय समूह के सिक्कों के विवाद में पड़े अथवा इन पौराणिक राजाओं के साथ अच्सुत गणपति नाग से इलाहाबाद स्तम्भ के नागसेना को मिला ' सकें । प्राचीन , भारतीय इतिहास में , जितने नागों का उल्लेख है , उनमें से चौथी शताब्दी के नाग परिवार ' सबसे अधिक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक दृष्टि से युक्तियुक्त प्रतीत होते हैं । हमें पता नहीं कि लाहौर की ताम्र मुद्रा ' के नागभट्ट और उनके पुत्र महाराज महेश्वर नाग उक्त तीन परिवारों में से किसी एक के थे , स्वयं एक पृथक नाग परिवार था । लेकिन इन सबसे डाक्टर सी . सी . रायचौधरी के निष्कर्ष का समर्थन होता है कि उत्तर भारत में चतुर्थ शताब्दी के कुषाण राज्यों को नागों ने जीत लिया तो वे लुप्त हो गए ।
ये नाग उत्तरायण के विभिन्न प्रदेशों में शासन करते रहे होंगे । कालांतर में उन्हें समुद्रगुप्त की सेनाओं ने परास्त कर दिया था , जो ही स्कन्दगुप्त के समय तक हम एक सर्वनाग अंतर्वेदों ' का क्षात्रप ज्ञात होता है कि आस - पास विशेष रूप से भरूकच्छ में छठी शताब्दी तक नागों का महत्वपूर्ण स्थान था । जूनागढ़ शिलालेख से यह पता लगता है कि स्कन्दगुप्त ने नागों के एक विद्रोह को बुरी तरह दबाया था । 570 ई . में दट्टाप्रथम गुर्जन ने नागों को उखाड़ फेंका । उन्हें त्रिहुल्लक या भरूच ' के द्वारा शासित बनवास माना गया है । ध्रुवसेन द्वितीय के 645 ई . के दानपत्र में प्रभात् श्री नाग का दत्तक के नाम से उल्लेख है ।
नवीं शताब्दी में नागों को विशेष रूप से मध्यभारत में दूसरी बार फिर अपना प्रभुत्व जमाया । 800 ई . में कोशल स्थित श्रीपुर को महाराजा तीव्रदेव ने नाग के कबीले ' को हराया । इसके कुछ समय बाद बंगाल के शिलालेखों में भी नागों के दो उल्लेख मिलते हैं । महामांडलिक ईश्वर घोष के राजगंज के एक लेख से एक घोष नाग परिवार से हमारा परिचय होता है इसे ग्यारहवीं शताब्दी में माना गया है । बारहवीं शताब्दी के हरिवर्मादेव के मंत्री भट्ट भवदेव की भुवनेश्वर प्रशस्ति में भी उनके द्वारा नाग राजाओं के विनाश का उल्लेख है । रामचरित मानस में भी रामपाल द्वारा भाव भूषण सन्तति में उत्कल राज्य की विजय का उल्लेख किया गया है । लेकिन यहां यह स्पष्ट नहीं है कि वे नाग थे या चंद्र थे । अधिक संभावना यही है कि वे नाग ही थे , क्योकि वे ही अधिक प्रसिद्ध थे ।
दसवीं से बारहवीं शताब्दी में एक सैन्द्रक सिंद अथवा छिन्दक परिवार की अलग - अलग शाखाएं शनैः - शनैः मध्य भारत विशेष रूप से बस्तर के विभिन्न प्रदेशों में फैल गई । ये अपने को भोगवती और नागवंशी कहते थे । दसवीं शताब्दी के शिलालेख में बेगुर के नागोत्तरों का वर्णन है । वे पश्चिम गंग के राजा एरियप्प की ओर से वीर महेन्द्र के विरुद्ध लड़े और युद्ध में यश प्राप्त किया । यदि " भवसाहसांक - चरित " को प्रमाण माना जाए तो सिंधुराज परमार को रानी का पिता नाग नरेश इसी समय के आस - पास नर्मदा के तट पर रत्नावती में राज्य करता रहा होगा ।
प्राचीन इतिहास के विद्यार्थी जब अतीत की मीमांसा करते हैं तो उन्हें चार नाम प्रायः मिलते हैं , आर्य , द्रविड़ , दास और नाग । इतिहास के विद्यार्थियों की सबसे बड़ी गलती दासों को नागों से पृथक करना है । दास और नाग एक ही हैं । दास , नागों का केवल दूसरा नाम मात्र है । यह समझना कठिन नहीं है कि वैदिक वाङ्मय में नागों का ही नाम दास क्यों पड़ा । दास भारतीय ईरानी शब्द दाहक का संस्कृत तत्सम रूप है । नागों के राजा का नाम दाहक था इसलिए आर्यों ने नागों के राजा के नाम पर सभी नागों को सामान्य रूप से दास कहना आरंभ किया । नाग कौन थे ? निस्संदेह वे अनार्य थे ।
वैदिक वाङ्मय को ध्यान से देखने से उसमें एक विसंगति और द्वेत की भावना दो तरह की संस्कृतियों और विचारधाराओं के बीच उहापोह की भावना साफ तौर पर दिखाई देती है । ऋग्वेद में हमारा परिचय आर्य देवता इन्द्र के शत्रु अहि वृत्र ( सांप देवता ) से होता है । पीछे चलकर यह सांप देवता नाग नाम से प्रसिद्ध हुआ , किंतु आरंभिक वैदिक वाङमय में नाग और नाम दृष्टिगोचर नहीं होता और जब यह शतपथ ब्राह्मण ( 11 - 2 , 7 , 12 ) में प्रथम बार आता है , तो यह स्पष्ट नहीं होता कि नाग का मतलब एक बड़ा सांप है या बड़ा हाथी । लेकिन इससे अहिवृत्र का स्वरूप नहीं छिपता क्योंकि ऋगवेद में उसका स्वरूप सदैव पानी में अथवा उसके चारों ओर छिपे तथा आकाश और पृथ्वी के जल पर समान रूप से अधिकार किए हुए सांप का है ।
अहिवृत्र संबंधी वेद मंत्रों से यह भी स्पष्ट है कि आर्य उसकी पूजा नहीं करते थे । वे उसे आसुरी प्रकृति का एक शक्तिशाली देवता मानते थे , जिसे परास्त करना ही इष्ट था ।
ऋग्वेद में नागों का नाम आने से यह स्पष्ट है कि ' नाग एक बहुत ही प्राचीन पुरूष थे । यह भी स्मरणीय है कि नाग न तो आदिवासी ही थे और न असभ्य ही । इतिहास नागों और राजकीय परिवारों के बीच निकट वैवाहिक संबंधों का भी साक्षी है । कदम्ब - नरेश कृष्णवमो ' के देवगिरि शिला - लेख के अनुसार कदम्बकुल का नागों से संबंध था । नवीं शताब्दी के राजकोट के दान पत्र में अश्वत्थामा एक के नाग कन्या के साथ विवाह का उल्लेख है । उन्हीं की संतान स्कंद शिष्य ने पल्लव वंश की स्थापना की । नवीं शताब्दी के ही एक दूसरे पल्लव शिला - लेख के अनुसार वीर - कुर्च पल्लव वंश का राजा था । इसी शिला - लेख में उल्लेख है कि उसने एक नाग कन्या से विवाह किया था और उससे उसे राज्य चिन्ह मिला था । वाकाटक नरेश प्रवरसेन के पुत्र गौतमी - पुत्र का भारवि नरेश भवनाग की पुत्री के साथ विवाह करना एक ऐतिहासिक घटना है । इसी प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय का नाग - कुल ' की कुबेर नाग नामक कन्या से विवाह हुआ । एक तमिल कवि का कहना है कि कोक्किल्ली नाम के एक प्राचीन चोल नरेश ने एक नाग कन्या से विवाह किया । राजेन्द्र चोल को भी अपनी तेजस्विता के कारण नाग कन्या का पाणिग्रहण करने का श्रेय दिया जाता है । नावसाहशांक चरित में परमेश्वर नरेश सिंधुराज ( जिसने दसवीं शताब्दी के प्रथम भाग में राज्य किया होगा ) . और शशिप्रभा नामक नाग कन्या के विवाह का इतने विस्तार और ऐसी यथार्थता से वर्णन है कि हमें लगभग यह विश्वास हो जाता है कि इस कथन में कुछ ऐतिहासिकता अवश्य होगी । ( 973 - 1830 वि . स . ) के हर्ष के शिलालेख में हमें आभास मिलता है - गुवाक प्रथम नागों और कमारों की सभाओं में वीर रूप में प्रसिद्ध था । यह नरेश विग्रहराज चाहमान से ऊपर की पीढ़ी में छठा था । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह नवीं शताब्दी के मध्य में राज्य करता रहा होगा । उड़ीसा के भौमन वंश के शान्तिकर के पुत्र के एक शिलालेख में पता चलता है कि उसने नाग परिवार की त्रिभुवन महादेवी ' से विवाह किया था । शान्तिकर का समय 921 ई . के आस - पास समझना चाहिए ।
नाग सांस्कृतिक विकास की ऊंची अवस्था को तो प्राप्त थे ही इतिहास से यह - भी प्रकट होता है कि वह देश के एक बड़े भू - भाग पर राज्य भी करते थे । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि महाराष्ट्र नागों का क्षेत्र है । यहां के लोग और यहां के राजा नाग थे ।
एक से अधिक प्रमाणों से यह पता चलता है , ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में आंध्र देश और उसका पड़ोस नागों के अधीन था । सातवाहन और उनके छुतुकुल शातकर्मी उत्तराधिकारियों का रक्त नाग रक्त ही था । जैसा . डॉ . एच . सी . रायचौधरी ने निर्देश किया है सातवाहन वंश के पौराणिक प्रतिनिधि सालीहरण को पूनिया शत्पुकलिला ने ब्राह्मण और नाग के मेल से उत्पन्न स्वीकार किया है । उनकी वंशावलियों में जो नमूने के नाग नाम मिलते है । उनसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है । अनेक घटनाओं से यह भी सिद्ध होता है कि सातवाहन राज्य के अंतिम दिनों में नाग बहुत शक्तिशाली हो गये थे । सातवाहन वंश की मुख्य शाखा के अंतिम नरेश पुलुमवी के शासन काल में स्कन्दनाग नामक राजा राज्य करता था । दूसरे एक छुतु नरेश की कन्या नाग मुलनिका के बारे में उल्लेख है कि उसने शिकन्द नाग श्रीनाम के अपने पुत्र के साथ एक नाग की भेंट दी । इस वंश के सभी ज्ञात नरेशों क नाम यहीं हैं । इससे नागों से निकट संबंध सिद्ध होता है । तीसरे , सोरिनगोई की राजधानी उरगपुर के नाम से यब बात झलकती है कि यहां किसी नाग - राजा का अलग से राज्य नहीं था , किंतु उस चिरकाल स्थित प्रदेश में वह नागों का एक उपनिवेश था ।
सिंहल और स्याम की बौद्ध अनुश्रुति से भी हमें यह ज्ञात होता है कि करांची के पास मजेरिक नाम का एक नाग प्रदेश था ।
तीसरी और चौथी शताब्दी के प्रारंभ में उत्तरी भारत में भी अनेक नाग नरेशों का शासन रहा है । यह बात पुराणों , प्राचीन सिक्कों तथा लेखों से सिद्ध होती है । विदिशा चम्पावती , पदमावती और मथुरा का विशेष उल्लेख मिलता है कि उनकी असंदिग्ध है । यहां यह संभव नहीं है कि हम द्वितीय समूह के सिक्कों के विवाद में पड़े अथवा इन पौराणिक राजाओं के साथ अच्सुत गणपति नाग से इलाहाबाद स्तम्भ के नागसेना को मिला ' सकें । प्राचीन , भारतीय इतिहास में , जितने नागों का उल्लेख है , उनमें से चौथी शताब्दी के नाग परिवार ' सबसे अधिक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक दृष्टि से युक्तियुक्त प्रतीत होते हैं । हमें पता नहीं कि लाहौर की ताम्र मुद्रा ' के नागभट्ट और उनके पुत्र महाराज महेश्वर नाग उक्त तीन परिवारों में से किसी एक के थे , स्वयं एक पृथक नाग परिवार था । लेकिन इन सबसे डाक्टर सी . सी . रायचौधरी के निष्कर्ष का समर्थन होता है कि उत्तर भारत में चतुर्थ शताब्दी के कुषाण राज्यों को नागों ने जीत लिया तो वे लुप्त हो गए ।
ये नाग उत्तरायण के विभिन्न प्रदेशों में शासन करते रहे होंगे । कालांतर में उन्हें समुद्रगुप्त की सेनाओं ने परास्त कर दिया था , जो ही स्कन्दगुप्त के समय तक हम एक सर्वनाग अंतर्वेदों ' का क्षात्रप ज्ञात होता है कि आस - पास विशेष रूप से भरूकच्छ में छठी शताब्दी तक नागों का महत्वपूर्ण स्थान था । जूनागढ़ शिलालेख से यह पता लगता है कि स्कन्दगुप्त ने नागों के एक विद्रोह को बुरी तरह दबाया था । 570 ई . में दट्टाप्रथम गुर्जन ने नागों को उखाड़ फेंका । उन्हें त्रिहुल्लक या भरूच ' के द्वारा शासित बनवास माना गया है । ध्रुवसेन द्वितीय के 645 ई . के दानपत्र में प्रभात् श्री नाग का दत्तक के नाम से उल्लेख है ।
नवीं शताब्दी में नागों को विशेष रूप से मध्यभारत में दूसरी बार फिर अपना प्रभुत्व जमाया । 800 ई . में कोशल स्थित श्रीपुर को महाराजा तीव्रदेव ने नाग के कबीले ' को हराया । इसके कुछ समय बाद बंगाल के शिलालेखों में भी नागों के दो उल्लेख मिलते हैं । महामांडलिक ईश्वर घोष के राजगंज के एक लेख से एक घोष नाग परिवार से हमारा परिचय होता है इसे ग्यारहवीं शताब्दी में माना गया है । बारहवीं शताब्दी के हरिवर्मादेव के मंत्री भट्ट भवदेव की भुवनेश्वर प्रशस्ति में भी उनके द्वारा नाग राजाओं के विनाश का उल्लेख है । रामचरित मानस में भी रामपाल द्वारा भाव भूषण सन्तति में उत्कल राज्य की विजय का उल्लेख किया गया है । लेकिन यहां यह स्पष्ट नहीं है कि वे नाग थे या चंद्र थे । अधिक संभावना यही है कि वे नाग ही थे , क्योकि वे ही अधिक प्रसिद्ध थे ।
दसवीं से बारहवीं शताब्दी में एक सैन्द्रक सिंद अथवा छिन्दक परिवार की अलग - अलग शाखाएं शनैः - शनैः मध्य भारत विशेष रूप से बस्तर के विभिन्न प्रदेशों में फैल गई । ये अपने को भोगवती और नागवंशी कहते थे । दसवीं शताब्दी के शिलालेख में बेगुर के नागोत्तरों का वर्णन है । वे पश्चिम गंग के राजा एरियप्प की ओर से वीर महेन्द्र के विरुद्ध लड़े और युद्ध में यश प्राप्त किया । यदि " भवसाहसांक - चरित " को प्रमाण माना जाए तो सिंधुराज परमार को रानी का पिता नाग नरेश इसी समय के आस - पास नर्मदा के तट पर रत्नावती में राज्य करता रहा होगा ।